गोवर्धन महाराज जी भगवान श्रीकृष्ण के परम प्रिय और पूजनीय स्वरूप माने जाते हैं, जिन्हें हिन्दू धर्म में एक जीवंत पर्वत के रूप में आदर और श्रद्धा के साथ पूजा जाता है। ब्रजभूमि में स्थित गोवर्धन पर्वत न केवल एक प्राकृतिक स्थल है, बल्कि वह कृष्ण भक्ति का जीवंत प्रतीक भी है। गोवर्धन लीला के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने यह दर्शाया कि प्रकृति, पशुपालन और सत्य आचरण ही धर्म का आधार हैं। जब इंद्र देव के अहंकार को तोड़ने के लिए कृष्ण जी ने गांववासियों को इंद्र की पूजा छोड़कर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने को कहा, तब इंद्र के क्रोधित होने पर घनघोर वर्षा आरंभ हो गई। उस समय श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को सात दिनों तक उठाकर सभी गोकुलवासियों को सुरक्षा प्रदान की।

श्री गोवर्धन महाराज, ओ महाराज,
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।
तोपे पान चढ़े तोपे फूल चढ़े,
तोपे चढ़े दूध की धार।

तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।
तेरी सात कोस की परिकम्मा, और चकलेश्वर विश्राम
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।

तेरे गले में कण्ठा साज रहेओ,
ठोड़ी पे हीरा लाल।
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।

तेरे कानन कुण्डल चमक रहेओ,
तेरी झांकी बनी विशाल।
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।

गिरिराज धरण प्रभु तेरी शरण।
करो भक्त का बेड़ा पार
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।

गोवर्धन महाराज की जय…
भगवान कृष्ण की जय…
मानसी गंगा की जय…
राधा कुंड की जय…
कृष्ण कुंड की जय…

यह लीला न केवल कृष्ण की महिमा को दर्शाती है, बल्कि गोवर्धन की दिव्यता को भी स्थापित करती है। तभी से गोवर्धन पर्वत को स्वयं कृष्ण के स्वरूप के रूप में पूजा जाता है। दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा का विशेष महत्त्व होता है, जिसमें गोवर्धन जी का अन्नकूट महोत्सव मनाया जाता है और पर्वत की परिक्रमा कर भक्तगण अपने श्रद्धा भाव को व्यक्त करते हैं। गोवर्धन महाराज भक्तों को यह सिखाते हैं कि सच्ची भक्ति केवल देवी-देवताओं की पूजा में नहीं, बल्कि प्रकृति और सभी जीवों के संरक्षण में भी है। वे अन्न, जल और जीवन का प्रतीक हैं, जिनकी सेवा और पूजा से जीवन में संतुलन, शांति और कृपा बनी रहती है। इस प्रकार गोवर्धन महाराज न केवल एक पर्वत हैं, बल्कि भक्तों के लिए भगवान का सजीव, साकार और संवेदनशील रूप हैं।

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